Tuesday, May 12, 2009

धर्मं का अर्थ

एक धर्म वो है जो वेद,पुराण,कुरान,बैबल,गुरुग्रंथ,जैन धर्मग्रंथों के पन्नों में बंद रहता है.उसको लाल,पीली,हरी,सफ़ेद चादर या कपडों में बांधकर पूजा के स्थान पर रखकर अपने को धार्मिक माना जा सकता है...पर इससे लाभ इतना ही है,जितना एक दवाई की दुकान वाले के पास सारी दवा होने का आत्मविश्वास होना और एक हलवाई के पास हर प्रकार की मिठाइयाँ होने का होता है.ये सब इन वस्तुओ को पूरी तरह न तो उपयोग में ला सकते हैं और न ही उसकी सारी चीजों को किसी भी व्यक्ति का उसके भले के लिए उपयोग कर सकता है....जबकि ये सारी चीजें उसके पास हैं.ठीक उसी तरह सारा ज्ञान उपरोक्त पोथियों में हैं,पर न तो समय पर कब,क्या जरूरत है?क्या उपयोगी है?यह जानकारी नही होने पर वह भी व्यर्थ है...उससे भी दवाई और मिठाई की दुकान की तरह होने का कोई अर्थ भी नही है,क्यूंकि न तो सारी दवाइयाँ और न ही सारी मिठाइयां किसी एक व्यक्ति का एक साथ भला कर सकती है...हाँ..जरूरत के अनुसार उसका कुछ उपयोग अवश्य हो सकता है.उस पर भी यदि उसका उपयोग कराने वाला नीम हकीम है तो फिर..उसको उपयोग में करने वाले का जो लाभ होगा,वह आसानी से समझ में आ सकता है.उसी तरह सही तरह से मिठाई बनाकर सही रखरखाव करके ,उसको अगर हम उपयोग में लायें तो कुछ मनोरथ पूरा हो सकता है,पर यही गन्दगी वाले स्थान में प्रस्तुत की गई मिठाई हमारी मौत का कारण बन सकते हैं..यह भी एक शाश्वत सत्य हैं.दूसरी तरफ़ कुछ दवाई दूकान वाले अपने अधूरे ज्ञान के आधार पर लोगों को दवा देकर अपनी डाक्टरी अवश्य चला लेते हैं,पर किसी रूप में वे डॉक्टर नही कहला सकते ..हाँ अगर उनकी मूर्खता किसी की जान लेले तो उनको उनका वह अधकचरा ज्ञान जेल अवश्य पंहुचा सकता है.पर धर्म में तथाकथित पंडित,मुल्लाओं आदि का अधकचरा ज्ञान आपकी हानि तो कर सकता है और हानि चाहे कितनी भी बड़ी हो,उनको कोई भी दंड नही मिलता..न ही समाज से और न ही भुक्तभोगी से...वह स्वछंद रूप से माथे पर तिलक,टोपी लगाये अपने अधकचरेपन का प्रदर्शन आजीवन करता रहता हैऔर हम मुर्ख बने उसका अनुसरण करते रहते हैं.वह दोषी धर्मगुरु अपनी सुरक्षा के लिए इस तरह के लोगों की भीड़ बनाये रखता है...जिन्हें पंथ या मजहब के नाम पर विभाजित करने में वह और उस तरह के लोग सफल हो जाते हैं.
एक धर्म यह भी है,जिसमे हम और हमारे तरह के कई लोग जिनकी आँख खुलते ही कमाने की चिंता और आँख बंद होने तक भी अगले दिन के कार्यक्रम बनाने में व्यतीत हो जाता है......उनको न भगवान् की सुध होती है,न जप,तप,अनुष्ठान,पूजा,पाठ,प्रवचन,मन्दिर में देव दर्शन करने का समय होता है....तो क्या वो इसलिए धार्मिक नही हैं,क्यूंकि वह किसी पंथ या मत में शामिल नही हो पा रहा या मन्दिर में एक लोटा पानी नही चढा पा रहा?........वह क्या है?...........................वह अगर अपने कार्य करते समय किसी का अहित न करते हुए अपना अर्जन कर रहा है तो शायद वह सबसे बड़ा धार्मिक है..येह्भी हमारे ग्रंथों के पन्नों में लिखा है,उसको कर्मयोगी कहा गया है...उसको भी वे सारे लाभ प्राप्त होते हैं,जो पाखंड से उन पाखंडियों को नही मिल पाते.कर्मयोगी को आत्मिक शान्ति मिलती है जबकि उन्हें हमेशा अशांति और अपयश का डर सताता रहता है.इसका कदापि ये अर्थ नही है कि पूजा-पाठ सब व्यर्थ है.....उन्हें समय के अनुसार सीमाबद्ध किया जा सक्र्ता है,पर उनको असीम बना कर समय नष्ट नही करना चाहिए.कार्य दोनों ही करते हैं लेकिन एक अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को नरकगामी बनता है,वहीँ कर्मयोगी अपनी सदबुधि से धर्मं-कर्म का समन्वय करके चलता है...अपनी मेहनत की कमाई को कुपात्रों को दान देने से बचता है,क्यूंकि कुपात्र को दान देना सबसे बड़ा पाप है.यह ज्ञान भी उन बंद पन्नों में लिखा है;जिन्हें ये तथाकथित धर्मात्माबंद रहने में ही अपना भला समझते हैं.....अब हमें विचार करना है कि हमें कैसा धार्मिक बनना है?

(सर्व अधिकार सुरक्षित )

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