Tuesday, September 27, 2011

संस्कारों में घुली हमारी आदतें

कई बार हम नहीं चाहते हुए भी ऐसी गलतियाँ करते रहते हैं ,जिसकी तो हमने कभी कल्पना कि थी ही हमें यह विश्वास होता है कि यह गलती कभी हमने की होगी .पर गलती हमने ही की है ,यह सच्चाई जब प्रमाणित हो जाती है,तब हमें बहुत दुःख होता है .अब हमारे पास ,दो ही विकल्प बचते हैं ,एक या तो हम अपनी गलती मान लें,और उसका पश्चाताप करते हुए ,जिसके साथ हमने यह गलती की है ,उससे पूरे दिल से विन्रम भाव से क्षमा याचना करते हए अपनी गलती पर दुःख व्यक्त किया जाय .दूसरा,अपनी गलती पर अड़े रहकर अड़ियलटट्टू बनकर इसी तरह की गलती पर गलती करते हुए खुद को पतन की ओर ले जाएँ और इसी तरह की गलतियाँ करते करते अंत में हम गलतियों के पुतले बनते चले जाएँगे। धीरे धीरे हमारा विवेक हमारी गलतियों के आगे परास्त होता चला जायेगा और हमें हर गलती सही लगने लगेगी ;और अंत में हमारा यह विकृत चिंतन हमारे संस्कारों में घुलता चला जायेगा और यह आदत हमारे स्वभाव का अंग बनता चला जायेगा.अब यदि हमारा शुभ चिन्तक कभी हमारी गलती की ओर हमारा ध्यान दिलाकर हमारा सुधार करना चाहेगा तो शायद वह या तो हमें हमारा सबसे बड़ा शत्रु नजर आएगा या फिर हम उसे महापागल समझकर उससे अपने सभी सम्बन्ध समाप्त करलेंगे ,क्योंकि किसी भी हालत में हमारे अहंकार पर कोई चोट करे ,यह हम कभी भी सहन नहीं कर पाएंगे .यही हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा . अच्छा यह होगा क़ि हमें यदि किसी के द्वारा हमारी गलती बतानें पर ठोस पहुँचती है ,तो हमको खुद अपनी गलती का विशलेष्णकरें .किसी से सलाह करने में शर्म आती है ,तो हम इसे किसी दुसरे क़ि समस्या बताकर सलाह लें .पर किसी भी हालत में अपनी गलती को अपने संस्कारों में शामिल न होने दें , क्योंकि एक बार हमारी गलती हमारे संस्कारों में प्रवेश कर गयी तो उसको सुधारना बहुत कठिन हो जाता है,पर किसी भी हालत में ऐसा नामुमकिन नहीं है हमारी गलतियाँ हमारे विकास में कितनी बाधक होती हैं,यह धीमें ज़हर की तरह हमें पूरी तरह नष्ट करके ही छोडती हैं..किसी भी तरह इनसे हर हाल में बचाना बहुत जरुरी है .कभी भी अपनी छोटी से छोटी गलती को भी छोटे रूप में नहीं लेना चाहिए. ग़लतियाँ हमारे जीवन में तनाव उत्पन्न करती हैं और तनाव ,रोग ,दुःख और विनाश .इनसे जितना बचा जाये बचाना चाहिये .

Tuesday, May 10, 2011

लव यू मिस्टर कलाकार : १००% प्योर वेज इंटरटेनमेंट

राजश्री प्रोडकशन की परंपरा के अनुरूप एक सफल प्रयास....फिल्म का सारा घटनाक्रम एक स्वाभाविक हो सकने वाले संभव घटनाक्रम पर आधारित प्रयास है...फिल्म देखकर कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि वास्तविक जीवन में ऐसा नहीं हो सकता या फिल्म में मसाला डालने के चक्कर में घटना,कहानी ,डायलोग और डायरेकशन के साथ अन्याय किया गया है...फिल्म शुरू से अंत तक एक स्वाभाविक,आज के युग के जीवन में संभव हो सकने वाले घटनाक्रम पर आधारित है और फ़िल्मी नाटकीयता से बिलकुल दूर है...जिन दूसरे दृश्यों में अन्य हिट या फ्लॉप फिल्मों में मसाला डालकर फिल्म के टेस्ट को बिगाड़ा जाता है वहीँ इस फिल्म को परिवार में सभी के साथ बैठकर देखने योग्य बनाया गया है और इस बात का ध्यान भी रखा गया है...

साथ ही यह फिल्म उन नवयुवक- युवतियों के लिए एक प्रेरणा और दिशा दर्शन भी करती है जो भावनात्मक आवेश में आकर प्रेम में असफल होने पर आये दिन हिंसा,हत्या यहाँ तक आत्महत्या भी कर बैठते हैं...उनके लिए कुशल लेखक और डायरेक्टर के द्वारा ये सन्देश बहुत ही स्वाभाविक और जीवन में संभव हो सकने योग्य तरीके से दिया गया है कि " प्रेम मात्र हवाई सपनों में डूबे रहने का नाम नहीं है ,बल्कि अपने सच्चे प्रेम को समझदारी, सूझबूझ और सच्ची लगन के साथ प्रेरणा का रूप देकर अपने साथी को ऊपर उठाया जा सकता है....और एक-दूसरे की कमी को सच्ची प्रेरणा से दूर करके अपने समकक्ष बनाया जा सकता है."

फिल्म में कई बार ऐसी परिस्थितियां आती हैं जब दोनों सच्चे प्रेमियों के असफल होने के अवसर आते हैं पर समझदारी ,सूझबूझ ,दृढ़ तथा सच्ची प्रेमपूर्ण प्रेरणा के बल पर उस असफलता पर विजय प्राप्त की गई है..ये सबकुछ " नारी सुलभ लज्जा" के अंतर्गत रह कर ही किया गया है इसके लिए आकाश से "चाँद-तारे तोड़कर लाने" जैसा काल्पनिक प्रयास बिलकुल भी आवश्यक नहीं है ये बखूबी बताया और दर्शाया गया है....फिल्म के सारे कैरेक्टर एक स्वाभाविक घटनाक्रम वाली प्रक्रिया के अंतर्गत आने वाले धरातल पर ही घूमते हैं....पूरी फिल्म में एक कलाकार के भावुक हृदय और कोमल भावनाओं को जीवित रखने का पूरा ध्यान रखा गया है...

फिल्म में प्रेम चोपड़ा जी को एक समझदार,सुलझे हुए,पारखी बुजुर्ग की भूमिका में चरितार्थ करके उनकी अभिनय क्षमता पर नए तरीके से प्रकाश डाला गया है...और अपने कुशल अभिनय से दर्शकों पर एक अच्छा प्रभाव छोड़ते हुए प्रेमजी आदर के योग्य हैं और इस बार "बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर"के पुरस्कार के हकदार भी हैं...हीरो तुषार कपूर ने बहुत ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी ढंग से एक कलाकार की भूमिका निभाई है...और फिल्म में पूरी तरह स्वाभाविक अभिनय किया है....अमृता राव ने भी एक भारतीय नारी के चरित्र को बखूबी निभाते हुए,सहेलियों के साथ,प्रेमी के साथ,पिता के साथ,नाना के साथ,ऑफिस के सहयोगियों के साथ अलग-अलग तरीके के सही हावभाव दिखाकर अपनी कुशल अभिनय क्षमता का परिचय दिया है..डायलौग बोलने की शैली में उनकी आवाज़ की खनखनाहट और उसमे मिला मन का दर्द ,अनुभव और अपने तरीके से सजीव प्रस्तुत करना...अमृता को चित्रजगत कि अन्य हिरोईनों से अलग ला खड़ा करता है...संक्षेप में फिल्म देखकर हर युवा दर्शक ये कामना करने पर मजबूर हो जायेगा कि काश उनको भी एक ऋतू जैसी स्वाभाविक प्रेमिका मिले और उनका जीवन भी धन्य हो...उनकी अभिनय क्षमता को देखकर उनको बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड दिया गया तो ये न्यायसंगत होगा....

अगर इस साफ़ सुथरी फिल्म को बेस्ट स्टोरी, स्क्रिप्ट और डायरेक्शन के लिए चुना जाए तो फिल्म जगत में इस तरह की फिल्म बनाने के साहस को प्रोत्साहन मिलेगा.....