Tuesday, September 27, 2011
संस्कारों में घुली हमारी आदतें
कई बार हम नहीं चाहते हुए भी ऐसी गलतियाँ करते रहते हैं ,जिसकी न तो हमने कभी कल्पना कि थी न ही हमें यह विश्वास होता है कि यह गलती कभी हमने की होगी .पर गलती हमने ही की है ,यह सच्चाई जब प्रमाणित हो जाती है,तब हमें बहुत दुःख होता है .अब हमारे पास ,दो ही विकल्प बचते हैं ,एक या तो हम अपनी गलती मान लें,और उसका पश्चाताप करते हुए ,जिसके साथ हमने यह गलती की है ,उससे पूरे दिल से विन्रम भाव से क्षमा याचना करते हए अपनी गलती पर दुःख व्यक्त किया जाय .दूसरा,अपनी गलती पर अड़े रहकर अड़ियलटट्टू बनकर इसी तरह की गलती पर गलती करते हुए खुद को पतन की ओर ले जाएँ और इसी तरह की गलतियाँ करते करते अंत में हम गलतियों के पुतले बनते चले जाएँगे। धीरे धीरे हमारा विवेक हमारी गलतियों के आगे परास्त होता चला जायेगा और हमें हर गलती सही लगने लगेगी ;और अंत में हमारा यह विकृत चिंतन हमारे संस्कारों में घुलता चला जायेगा और यह आदत हमारे स्वभाव का अंग बनता चला जायेगा.अब यदि हमारा शुभ चिन्तक कभी हमारी गलती की ओर हमारा ध्यान दिलाकर हमारा सुधार करना चाहेगा तो शायद वह या तो हमें हमारा सबसे बड़ा शत्रु नजर आएगा या फिर हम उसे महापागल समझकर उससे अपने सभी सम्बन्ध समाप्त करलेंगे ,क्योंकि किसी भी हालत में हमारे अहंकार पर कोई चोट करे ,यह हम कभी भी सहन नहीं कर पाएंगे .यही हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा . अच्छा यह होगा क़ि हमें यदि किसी के द्वारा हमारी गलती बतानें पर ठोस पहुँचती है ,तो हमको खुद अपनी गलती का विशलेष्णकरें .किसी से सलाह करने में शर्म आती है ,तो हम इसे किसी दुसरे क़ि समस्या बताकर सलाह लें .पर किसी भी हालत में अपनी गलती को अपने संस्कारों में शामिल न होने दें , क्योंकि एक बार हमारी गलती हमारे संस्कारों में प्रवेश कर गयी तो उसको सुधारना बहुत कठिन हो जाता है,पर किसी भी हालत में ऐसा नामुमकिन नहीं है हमारी गलतियाँ हमारे विकास में कितनी बाधक होती हैं,यह धीमें ज़हर की तरह हमें पूरी तरह नष्ट करके ही छोडती हैं..किसी भी तरह इनसे हर हाल में बचाना बहुत जरुरी है .कभी भी अपनी छोटी से छोटी गलती को भी छोटे रूप में नहीं लेना चाहिए. ग़लतियाँ हमारे जीवन में तनाव उत्पन्न करती हैं और तनाव ,रोग ,दुःख और विनाश .इनसे जितना बचा जाये बचाना चाहिये .
Tuesday, May 10, 2011
लव यू मिस्टर कलाकार : १००% प्योर वेज इंटरटेनमेंट
राजश्री प्रोडकशन की परंपरा के अनुरूप एक सफल प्रयास....फिल्म का सारा घटनाक्रम एक स्वाभाविक हो सकने वाले संभव घटनाक्रम पर आधारित प्रयास है...फिल्म देखकर कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि वास्तविक जीवन में ऐसा नहीं हो सकता या फिल्म में मसाला डालने के चक्कर में घटना,कहानी ,डायलोग और डायरेकशन के साथ अन्याय किया गया है...फिल्म शुरू से अंत तक एक स्वाभाविक,आज के युग के जीवन में संभव हो सकने वाले घटनाक्रम पर आधारित है और फ़िल्मी नाटकीयता से बिलकुल दूर है...जिन दूसरे दृश्यों में अन्य हिट या फ्लॉप फिल्मों में मसाला डालकर फिल्म के टेस्ट को बिगाड़ा जाता है वहीँ इस फिल्म को परिवार में सभी के साथ बैठकर देखने योग्य बनाया गया है और इस बात का ध्यान भी रखा गया है...
साथ ही यह फिल्म उन नवयुवक- युवतियों के लिए एक प्रेरणा और दिशा दर्शन भी करती है जो भावनात्मक आवेश में आकर प्रेम में असफल होने पर आये दिन हिंसा,हत्या यहाँ तक आत्महत्या भी कर बैठते हैं...उनके लिए कुशल लेखक और डायरेक्टर के द्वारा ये सन्देश बहुत ही स्वाभाविक और जीवन में संभव हो सकने योग्य तरीके से दिया गया है कि " प्रेम मात्र हवाई सपनों में डूबे रहने का नाम नहीं है ,बल्कि अपने सच्चे प्रेम को समझदारी, सूझबूझ और सच्ची लगन के साथ प्रेरणा का रूप देकर अपने साथी को ऊपर उठाया जा सकता है....और एक-दूसरे की कमी को सच्ची प्रेरणा से दूर करके अपने समकक्ष बनाया जा सकता है."
फिल्म में कई बार ऐसी परिस्थितियां आती हैं जब दोनों सच्चे प्रेमियों के असफल होने के अवसर आते हैं पर समझदारी ,सूझबूझ ,दृढ़ तथा सच्ची प्रेमपूर्ण प्रेरणा के बल पर उस असफलता पर विजय प्राप्त की गई है..ये सबकुछ " नारी सुलभ लज्जा" के अंतर्गत रह कर ही किया गया है इसके लिए आकाश से "चाँद-तारे तोड़कर लाने" जैसा काल्पनिक प्रयास बिलकुल भी आवश्यक नहीं है ये बखूबी बताया और दर्शाया गया है....फिल्म के सारे कैरेक्टर एक स्वाभाविक घटनाक्रम वाली प्रक्रिया के अंतर्गत आने वाले धरातल पर ही घूमते हैं....पूरी फिल्म में एक कलाकार के भावुक हृदय और कोमल भावनाओं को जीवित रखने का पूरा ध्यान रखा गया है...
फिल्म में प्रेम चोपड़ा जी को एक समझदार,सुलझे हुए,पारखी बुजुर्ग की भूमिका में चरितार्थ करके उनकी अभिनय क्षमता पर नए तरीके से प्रकाश डाला गया है...और अपने कुशल अभिनय से दर्शकों पर एक अच्छा प्रभाव छोड़ते हुए प्रेमजी आदर के योग्य हैं और इस बार "बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर"के पुरस्कार के हकदार भी हैं...हीरो तुषार कपूर ने बहुत ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी ढंग से एक कलाकार की भूमिका निभाई है...और फिल्म में पूरी तरह स्वाभाविक अभिनय किया है....अमृता राव ने भी एक भारतीय नारी के चरित्र को बखूबी निभाते हुए,सहेलियों के साथ,प्रेमी के साथ,पिता के साथ,नाना के साथ,ऑफिस के सहयोगियों के साथ अलग-अलग तरीके के सही हावभाव दिखाकर अपनी कुशल अभिनय क्षमता का परिचय दिया है..डायलौग बोलने की शैली में उनकी आवाज़ की खनखनाहट और उसमे मिला मन का दर्द ,अनुभव और अपने तरीके से सजीव प्रस्तुत करना...अमृता को चित्रजगत कि अन्य हिरोईनों से अलग ला खड़ा करता है...संक्षेप में फिल्म देखकर हर युवा दर्शक ये कामना करने पर मजबूर हो जायेगा कि काश उनको भी एक ऋतू जैसी स्वाभाविक प्रेमिका मिले और उनका जीवन भी धन्य हो...उनकी अभिनय क्षमता को देखकर उनको बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड दिया गया तो ये न्यायसंगत होगा....
अगर इस साफ़ सुथरी फिल्म को बेस्ट स्टोरी, स्क्रिप्ट और डायरेक्शन के लिए चुना जाए तो फिल्म जगत में इस तरह की फिल्म बनाने के साहस को प्रोत्साहन मिलेगा.....
Labels: फिल्म प्रीव्यू
Monday, June 1, 2009
अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़ते कदम
श्रीगुरुवेनमः ।
अज्ञान हमारे अन्दर तबतक बना रहता है जबतक हम अपने अंदरकी सचाई को दबाकर केवल झूठ को ही बाहरप्रकाशित करते रहते हैं जबतक हम ऐसा करते रहतेहैं तबतक हम सचे सुख से हमेशा दूर होते जाते हैं.अपनी इसझूठी मान्यता में इस कदर रम जाते हैं की फ़िर सच्चाई हमको झूठी और बकवास लगने लगती है.फ़िर उस झूठ को सच प्रमाणित करने में अपनी शक्ति नष्ट करते रहतें हैं , हमारा जीवन एक आडम्बर का पुलिंदा बन कर रह जाताहै.हर समय हम हमेशा अपने को वो दिखाते रहतें जो हम नहीं होते .अपने मन में यह झूठा भ्रम पलते रहते हैं कीलोग हमारी झूठ को हमारी तरह ही सच मान रहें हैं, यह हमारी दूसरी सबसे बड़ी भूल होती है ,सही में हम जो होतें हैंवही लोग हम को समझते हैं। कभी कोई जब हमरी गलती का हमें अहसास करता है तब हमारे झूठे अंहकार परचोट लगाती है और हम तिलमिला जाते हैं और परेशान हो जाते हैं ;उस को हमेशा के लिए अपना शत्रु बना लेतें हैंयह हमारी सबसे बड़ी भूल होत्ती है.जब हम धीरे धीरे कभी दुखी होतें हैं;जो होना ही था ,तब उस आदमी के प्रति एकगुप्त आदर हमारे मन में उत्पन होता है,पर हम झुकना नही चाहते,इस समय हम ज्ञान के प्रकाश का दर्शन मात्र कररहें होते हैं यहीं से हम अज्ञान से ज्ञान की और पहला कदम बढाते हैं ,अब और कितना आगे बढना है यह सब केवलहम पर सिर्फ़ हम पर निर्भर करता है,यहाँ हम ही हमारी सबसे अधिक मदद कर सकते हैं ।
अज्ञान हमारे अन्दर तबतक बना रहता है जबतक हम अपने अंदरकी सचाई को दबाकर केवल झूठ को ही बाहरप्रकाशित करते रहते हैं जबतक हम ऐसा करते रहतेहैं तबतक हम सचे सुख से हमेशा दूर होते जाते हैं.अपनी इसझूठी मान्यता में इस कदर रम जाते हैं की फ़िर सच्चाई हमको झूठी और बकवास लगने लगती है.फ़िर उस झूठ को सच प्रमाणित करने में अपनी शक्ति नष्ट करते रहतें हैं , हमारा जीवन एक आडम्बर का पुलिंदा बन कर रह जाताहै.हर समय हम हमेशा अपने को वो दिखाते रहतें जो हम नहीं होते .अपने मन में यह झूठा भ्रम पलते रहते हैं कीलोग हमारी झूठ को हमारी तरह ही सच मान रहें हैं, यह हमारी दूसरी सबसे बड़ी भूल होती है ,सही में हम जो होतें हैंवही लोग हम को समझते हैं। कभी कोई जब हमरी गलती का हमें अहसास करता है तब हमारे झूठे अंहकार परचोट लगाती है और हम तिलमिला जाते हैं और परेशान हो जाते हैं ;उस को हमेशा के लिए अपना शत्रु बना लेतें हैंयह हमारी सबसे बड़ी भूल होत्ती है.जब हम धीरे धीरे कभी दुखी होतें हैं;जो होना ही था ,तब उस आदमी के प्रति एकगुप्त आदर हमारे मन में उत्पन होता है,पर हम झुकना नही चाहते,इस समय हम ज्ञान के प्रकाश का दर्शन मात्र कररहें होते हैं यहीं से हम अज्ञान से ज्ञान की और पहला कदम बढाते हैं ,अब और कितना आगे बढना है यह सब केवलहम पर सिर्फ़ हम पर निर्भर करता है,यहाँ हम ही हमारी सबसे अधिक मदद कर सकते हैं ।
Thursday, May 21, 2009
सिद्धि का रूपांतरण
बचपन से आज तक हम अपने बड़ों से किसी न किसी पंडित,बाबा या अन्य किसी ऐसे ही व्यक्ति के बारे में सुनते आए हैं कि-ये बहुत ही सिद्ध पुरूष हैं ...ये जो चाहें वो कर सकते हैं...वगेरह,वगेरह......शायद इसी वजह से हमारी नज़र में वही व्यक्ति सिद्ध कहलाने लायक हैं,जिन्होंने गेरवे वस्त्र पहने हों...और उनकी जटाएं हों.हम कई बार ऐसे लोगों के द्वारा ठगे भी जाते है....लेकिन फिर भी कोई सुधर नही है।दूसरी ओर अगर हम अपनी इस सिद्ध कि परिभाषा से बाहर निकल कर देखें तो हमें कई सिद्ध हमारे आस-पास यूँ ही मिल जायेंगे.उन्हें ही अगर हम अपनी परिभाषा में रख कर देखें तो ये उसमें कहीं भी फिट नही बैठते.
जैसे कि इसका एक बहुत ही अच्छा उदाहरण है....हम सभी का जाना पहचाना कलाकार....अमिताभ बच्चन,हममें से कई लोगों के लिए वो एक प्रेरणा स्त्रोत हैं....कई तो उनसे इस कदर प्रभावित हैं कि उनकी बीमारी कि ख़बर सुनकरउनके लिए दुआ प्रार्थना करते हैं....यह कर्म जाती-धर्म से ऊपर उठ कर होता है....सभी धर्म के लोग उनके लिए समान प्रेम भाव रखते हैं.यहाँ अगर मैं अमितजी को एक महान सिद्ध कहूं तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी.मुझे उनको एक "सिद्ध कला योगी "कहने में कोई संकोच नही होगा.अगर वो कला के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा विकसित नही करके किसी धर्म या अन्य क्षेत्र में लगे होते तो भी शायद वे उतने ही सफल और सिद्ध होते.इस विषय को समझने के लिए ये उदाहरण सटीक था,इसलिए ही उपयोग किया गया इसे उदाहरण कि तरह ही लेना चाहिए न कि झूठी चापलूसी के रूप में.
इसी तरह विश्व सुंदरियां को भी इस विषय में उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है....उनकी वेशभूषा चाहे कैसी भी रहे....शालीन या अश्लील...उन्हें वहाँ तक पहुँचने में उनकी "रूप सिद्धि" साधना का अपना स्थान है.इससे भी सरल उदहारण हमें अपने घर के आस-पास ही मिल जाएगा....कोई भी शरारती बच्चा,जो कि अन्य बच्चों कि अपेक्षा ज्यादा शरारती है...और उसके पास उसका अनुसरण करने वाले बच्चों का समूह भी होता है.इस शरारती बच्चे को यदि "शरारत सिद्ध" कहें तो कोई बड़ी बात नही होगी,लेकिन उसकी ये सिद्धि अनियंत्रित कहलाएगी....जिसे सही दिशाधारा की आवश्यकता है.इसलिए ही प्राचीनकाल में "शरारत सिद्ध"कृष्ण को संदीपनी आदि गुरुओ के पास भेजा गया था.इसी तरह कई और भी उदाहरण हैं जहाँ गुरु बच्चों को सही दिशाधारा देकर उनकी सिद्धियों को जागृत करके उन्हें को वापस करते देते थे,जैसे चाणक्य और चन्द्रगुप्त...
सिद्धि हर एक के पास होती है,उसका सही दिशा में उपयोग करना हमारे हाथ में होता है.एक ही माता-पिता की संतान अलग-अलग प्रकृति के लोगों के संपर्क में आकर उन्ही की तरह बन गए...ऐसी कई कहानियाँ हमने सुनी हैं और अपने आस-पास देखी भी है.इसी तरह कई ऐसे व्यक्ति भी हैं,जो कम पढ़े लिखे होने के बावजूद भी सफल व्यापारी,कलाकार आदि बन चुके हैं....ये भी कह सकते हैं की उन्होंने ख़ुद को सिद्ध किया है
कहने का अर्थ है कि सिद्धि पाने के लिए साधना कि जरूरत तो होती है लेकिन उसके लिए ये जरूरी नही की बैठ कर पूजा पाठ की जाए.....साधना अपने काम की भी की जा सकती है....जैसा की उपरोक्त उदाहरणों से समझा जा सकता है.जरूरत है अपने अन्दर मौजूद सिद्धियों को पहचानने की और उन्हें साधना के द्वारा सिद्ध करने की.
जैसे कि इसका एक बहुत ही अच्छा उदाहरण है....हम सभी का जाना पहचाना कलाकार....अमिताभ बच्चन,हममें से कई लोगों के लिए वो एक प्रेरणा स्त्रोत हैं....कई तो उनसे इस कदर प्रभावित हैं कि उनकी बीमारी कि ख़बर सुनकरउनके लिए दुआ प्रार्थना करते हैं....यह कर्म जाती-धर्म से ऊपर उठ कर होता है....सभी धर्म के लोग उनके लिए समान प्रेम भाव रखते हैं.यहाँ अगर मैं अमितजी को एक महान सिद्ध कहूं तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी.मुझे उनको एक "सिद्ध कला योगी "कहने में कोई संकोच नही होगा.अगर वो कला के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा विकसित नही करके किसी धर्म या अन्य क्षेत्र में लगे होते तो भी शायद वे उतने ही सफल और सिद्ध होते.इस विषय को समझने के लिए ये उदाहरण सटीक था,इसलिए ही उपयोग किया गया इसे उदाहरण कि तरह ही लेना चाहिए न कि झूठी चापलूसी के रूप में.
इसी तरह विश्व सुंदरियां को भी इस विषय में उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है....उनकी वेशभूषा चाहे कैसी भी रहे....शालीन या अश्लील...उन्हें वहाँ तक पहुँचने में उनकी "रूप सिद्धि" साधना का अपना स्थान है.इससे भी सरल उदहारण हमें अपने घर के आस-पास ही मिल जाएगा....कोई भी शरारती बच्चा,जो कि अन्य बच्चों कि अपेक्षा ज्यादा शरारती है...और उसके पास उसका अनुसरण करने वाले बच्चों का समूह भी होता है.इस शरारती बच्चे को यदि "शरारत सिद्ध" कहें तो कोई बड़ी बात नही होगी,लेकिन उसकी ये सिद्धि अनियंत्रित कहलाएगी....जिसे सही दिशाधारा की आवश्यकता है.इसलिए ही प्राचीनकाल में "शरारत सिद्ध"कृष्ण को संदीपनी आदि गुरुओ के पास भेजा गया था.इसी तरह कई और भी उदाहरण हैं जहाँ गुरु बच्चों को सही दिशाधारा देकर उनकी सिद्धियों को जागृत करके उन्हें को वापस करते देते थे,जैसे चाणक्य और चन्द्रगुप्त...
सिद्धि हर एक के पास होती है,उसका सही दिशा में उपयोग करना हमारे हाथ में होता है.एक ही माता-पिता की संतान अलग-अलग प्रकृति के लोगों के संपर्क में आकर उन्ही की तरह बन गए...ऐसी कई कहानियाँ हमने सुनी हैं और अपने आस-पास देखी भी है.इसी तरह कई ऐसे व्यक्ति भी हैं,जो कम पढ़े लिखे होने के बावजूद भी सफल व्यापारी,कलाकार आदि बन चुके हैं....ये भी कह सकते हैं की उन्होंने ख़ुद को सिद्ध किया है
कहने का अर्थ है कि सिद्धि पाने के लिए साधना कि जरूरत तो होती है लेकिन उसके लिए ये जरूरी नही की बैठ कर पूजा पाठ की जाए.....साधना अपने काम की भी की जा सकती है....जैसा की उपरोक्त उदाहरणों से समझा जा सकता है.जरूरत है अपने अन्दर मौजूद सिद्धियों को पहचानने की और उन्हें साधना के द्वारा सिद्ध करने की.
Wednesday, May 13, 2009
सिद्धि
सिद्ध पुरुष हर धर्म ,हर जाति में होते हैं,कोई उनको संत,महात्मा,फ़कीर,वली कुछ भी कहे उनको इससे कोई फर्क नही पड़ता...अगर सिद्धि किसी एक प्रकार के धर्म पर चलकर मिलती तो दूसरे धर्मों में सिद्ध पुरुष नही होने चाहिए थे........पर ऐसा नही है.....हर धर्म में सिद्ध पुरुष हुए हैं......तो सिद्धि कैसे मिलती हैं?
सही मायने में अगर कहा जाए तो सिद्धि प्राप्त ही नही होती.....प्राप्त तो वह वस्तु होती है,जो हमारे पास नही है.......पर जो वस्तु हमारे पास है वह हमारी है.सिद्धि भी हर मनुष्य को जन्मजात ही प्राप्त होती है और उसका उपयोग वह विभिन्न तरह से करता है.किसी में वह सुप्त.....तो किसी में जागृत होती है;सुप्त सिद्धियों को जागृत भी किया जा सकता है...और जागृत सिद्धियों को दुरूपयोग करके सुप्त भी किया जा सकता है.एक मजदूर अपनी सिद्धि को मजदूरी करके उपयोग करता है,पर यदि उसको सही तरह से उपयोग करता है तो वह उससे सफल व्यापारी,डॉक्टर,कलाकार बन जाता है और दुरूपयोग करके शराबी,व्यभिचारी बनकर अपने आपको नष्ट भी कर सकता है।
गुरु सुप्त सिद्धियों को जागृत करता है,पर यहाँ उस गुरु को हम मठ,तीर्थ,प्रवचन में ही खोजते हैं,ऐसा हमारा अंधविश्वास बन चुका है........पर सही अर्थों में जो हमारी सुप्त शक्तियों को जागृत कर सके वही गुरु है...यही सत्य है।
जैसे एक साधारण सा दिखने वाला बीज अपने अन्दर असीम वट वृक्ष छुपाये रहता है....उसी तरह हमारे जैसे साधारण से दिखने वाले नगण्य व्यक्ति भी अपने अन्दर उसी तरह की असीम शक्ति,जो हमें इश्वर ने दे कर भेजी है,छुपाये बैठे हैं.कभी भी एक मूर्ख कालीदास बन सकता है और एक कायर वीर और भी बहुत कुछ......जैसा चाहे वैसा हम बन सकते हैं.बीज को किसान यदि ज़मीन में न भी बोए तो भी वह वृक्ष बनेगा,क्यूंकि जंगल में जहाँ किसान नही होते वहाँ बीज स्वयं गिरते रहते हैं और वृक्ष बनते ही हैं,वृक्ष बनने की क्षमता उसमे होती है,वही फलीभूत होती है.हाँ.......कुछ बीजों को विशेष तरीके से सिद्ध करके फसल उपजाई जाती है.किसान अर्थात बीज का गुरु चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित जैसा भी हो..जितना अनुभवी और योग्य होगा बीज उसी तरह की सिद्धि को प्राप्त होगा......यही हमारे साथ भी होता है,सही मार्गदर्शन के अभाव में हम चोर,डाकू,व्यभिचारी बनते हैं,तो कभी अच्छी दिशाधारा का ज्ञान कराने वाला कैसा भी व्यक्ति क्यूँ न हो दस्यु को वाल्मिकी में और अंगुलिमाल को बौद्ध भिक्षु में बदल सकता है.दिशाधारा व्यक्ति नही शक्ति होती है.हम उसको व्यक्ति मानकर सीमित करके सीमाबद्ध कर देते हैं.दिशाधारा जड़,चैतन्य,मूर्ख,बुद्धिमान किसी से भी प्राप्त हो सकती है और दत्तात्रेय की तरह अनेक गुरु के रूप में भी प्राप्त होती है,पर हम यह सोचें कि गुरु वह है जो ज्ञान देता है...वह कोई भी हो सकता है.हमारे अन्दर सही विचार आते हैं ..तो वो ही हमारे सच्चे गुरु हैं.......यह बात हम जितनी जल्दी समझ लेते हैं,उतनी ही हम सिद्धियों के नजदीक पहुँच रहे होते हैं.....जितना अधिक उस पर अमल करते हैं,उतने ही सिद्धिवान और विभूतिवान बनते जाते हैं.
(सर्व अधिकार सुरक्षित)
सही मायने में अगर कहा जाए तो सिद्धि प्राप्त ही नही होती.....प्राप्त तो वह वस्तु होती है,जो हमारे पास नही है.......पर जो वस्तु हमारे पास है वह हमारी है.सिद्धि भी हर मनुष्य को जन्मजात ही प्राप्त होती है और उसका उपयोग वह विभिन्न तरह से करता है.किसी में वह सुप्त.....तो किसी में जागृत होती है;सुप्त सिद्धियों को जागृत भी किया जा सकता है...और जागृत सिद्धियों को दुरूपयोग करके सुप्त भी किया जा सकता है.एक मजदूर अपनी सिद्धि को मजदूरी करके उपयोग करता है,पर यदि उसको सही तरह से उपयोग करता है तो वह उससे सफल व्यापारी,डॉक्टर,कलाकार बन जाता है और दुरूपयोग करके शराबी,व्यभिचारी बनकर अपने आपको नष्ट भी कर सकता है।
गुरु सुप्त सिद्धियों को जागृत करता है,पर यहाँ उस गुरु को हम मठ,तीर्थ,प्रवचन में ही खोजते हैं,ऐसा हमारा अंधविश्वास बन चुका है........पर सही अर्थों में जो हमारी सुप्त शक्तियों को जागृत कर सके वही गुरु है...यही सत्य है।
जैसे एक साधारण सा दिखने वाला बीज अपने अन्दर असीम वट वृक्ष छुपाये रहता है....उसी तरह हमारे जैसे साधारण से दिखने वाले नगण्य व्यक्ति भी अपने अन्दर उसी तरह की असीम शक्ति,जो हमें इश्वर ने दे कर भेजी है,छुपाये बैठे हैं.कभी भी एक मूर्ख कालीदास बन सकता है और एक कायर वीर और भी बहुत कुछ......जैसा चाहे वैसा हम बन सकते हैं.बीज को किसान यदि ज़मीन में न भी बोए तो भी वह वृक्ष बनेगा,क्यूंकि जंगल में जहाँ किसान नही होते वहाँ बीज स्वयं गिरते रहते हैं और वृक्ष बनते ही हैं,वृक्ष बनने की क्षमता उसमे होती है,वही फलीभूत होती है.हाँ.......कुछ बीजों को विशेष तरीके से सिद्ध करके फसल उपजाई जाती है.किसान अर्थात बीज का गुरु चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित जैसा भी हो..जितना अनुभवी और योग्य होगा बीज उसी तरह की सिद्धि को प्राप्त होगा......यही हमारे साथ भी होता है,सही मार्गदर्शन के अभाव में हम चोर,डाकू,व्यभिचारी बनते हैं,तो कभी अच्छी दिशाधारा का ज्ञान कराने वाला कैसा भी व्यक्ति क्यूँ न हो दस्यु को वाल्मिकी में और अंगुलिमाल को बौद्ध भिक्षु में बदल सकता है.दिशाधारा व्यक्ति नही शक्ति होती है.हम उसको व्यक्ति मानकर सीमित करके सीमाबद्ध कर देते हैं.दिशाधारा जड़,चैतन्य,मूर्ख,बुद्धिमान किसी से भी प्राप्त हो सकती है और दत्तात्रेय की तरह अनेक गुरु के रूप में भी प्राप्त होती है,पर हम यह सोचें कि गुरु वह है जो ज्ञान देता है...वह कोई भी हो सकता है.हमारे अन्दर सही विचार आते हैं ..तो वो ही हमारे सच्चे गुरु हैं.......यह बात हम जितनी जल्दी समझ लेते हैं,उतनी ही हम सिद्धियों के नजदीक पहुँच रहे होते हैं.....जितना अधिक उस पर अमल करते हैं,उतने ही सिद्धिवान और विभूतिवान बनते जाते हैं.
(सर्व अधिकार सुरक्षित)
विष और धर्म
धर्म और विष में कुछ समानता है।जिस तरह विष हिंदू,मुसलमान,सिख,ईसाई सब पर समान प्रभाव दिखाता है.विष खाने वाले की मृत्यु निश्चित है;उसी तरह धर्म कोई भी हो उसकी राह पर सही तरीके से चलने पर जो लाभ हिंदू को मिलेगा;वही लाभ मुसलमान,सिख ईसाई को भी मिलेगा.किसी भी पद्धति से कोई भी मनुष्य धर्मं को सही तरीके से अपनाएगा,उसका सही लाभ उसको अवश्य मिलेगा.सवाल धर्म को सही तरीके से अपनाने का है,तिलक,टोपी,दाढ़ी मूंछ की स्टाइल अलग-अलग बनने की जरूरत नही है और न ही इसके लिए किसी भी अन्य प्रकार की भिन्न-भिन्न क्रियाकलाप कर्मकांड करने की जरूरत है.यह करना तो ठीक उसी प्रकार है,जैसे एक ही तरह की विष की शीशी पर अलग-अलग कम्पनियाँ अलग-अलग नाम क्यूँ न लिखें पर है तो वह विष ही.रामछाप विष,रहीम छाप विष से किसी भी तरह कम घातक नही है,क्यूंकि दोनों विष ही हैं,सिर्फ़ लेबल अलग हैं.उसी तरह से सही धर्म पर चाहे अलग लेबल...... यथा वेद,पुराण कुरान...क्यूँ न लगा हो उनका प्रभाव एक ही होता है....सब को उसी तरह तरह लाभ भी प्राप्त होगा..चाहे कोई भी धर्म वाला,किसी भी धर्म के मार्ग पर ही क्यूँ न चले.सबसे पहले मानव उत्पन्न हुआ और मानव धर्म चला था....बाद में वह धर्म संकीर्ण होकर हिंदू,मुसलमान आदि में बांटा गया।
(सर्व अधिकार सुरक्षित)
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Tuesday, May 12, 2009
धर्मं का अर्थ
एक धर्म वो है जो वेद,पुराण,कुरान,बैबल,गुरुग्रंथ,जैन धर्मग्रंथों के पन्नों में बंद रहता है.उसको लाल,पीली,हरी,सफ़ेद चादर या कपडों में बांधकर पूजा के स्थान पर रखकर अपने को धार्मिक माना जा सकता है...पर इससे लाभ इतना ही है,जितना एक दवाई की दुकान वाले के पास सारी दवा होने का आत्मविश्वास होना और एक हलवाई के पास हर प्रकार की मिठाइयाँ होने का होता है.ये सब इन वस्तुओ को पूरी तरह न तो उपयोग में ला सकते हैं और न ही उसकी सारी चीजों को किसी भी व्यक्ति का उसके भले के लिए उपयोग कर सकता है....जबकि ये सारी चीजें उसके पास हैं.ठीक उसी तरह सारा ज्ञान उपरोक्त पोथियों में हैं,पर न तो समय पर कब,क्या जरूरत है?क्या उपयोगी है?यह जानकारी नही होने पर वह भी व्यर्थ है...उससे भी दवाई और मिठाई की दुकान की तरह होने का कोई अर्थ भी नही है,क्यूंकि न तो सारी दवाइयाँ और न ही सारी मिठाइयां किसी एक व्यक्ति का एक साथ भला कर सकती है...हाँ..जरूरत के अनुसार उसका कुछ उपयोग अवश्य हो सकता है.उस पर भी यदि उसका उपयोग कराने वाला नीम हकीम है तो फिर..उसको उपयोग में करने वाले का जो लाभ होगा,वह आसानी से समझ में आ सकता है.उसी तरह सही तरह से मिठाई बनाकर सही रखरखाव करके ,उसको अगर हम उपयोग में लायें तो कुछ मनोरथ पूरा हो सकता है,पर यही गन्दगी वाले स्थान में प्रस्तुत की गई मिठाई हमारी मौत का कारण बन सकते हैं..यह भी एक शाश्वत सत्य हैं.दूसरी तरफ़ कुछ दवाई दूकान वाले अपने अधूरे ज्ञान के आधार पर लोगों को दवा देकर अपनी डाक्टरी अवश्य चला लेते हैं,पर किसी रूप में वे डॉक्टर नही कहला सकते ..हाँ अगर उनकी मूर्खता किसी की जान लेले तो उनको उनका वह अधकचरा ज्ञान जेल अवश्य पंहुचा सकता है.पर धर्म में तथाकथित पंडित,मुल्लाओं आदि का अधकचरा ज्ञान आपकी हानि तो कर सकता है और हानि चाहे कितनी भी बड़ी हो,उनको कोई भी दंड नही मिलता..न ही समाज से और न ही भुक्तभोगी से...वह स्वछंद रूप से माथे पर तिलक,टोपी लगाये अपने अधकचरेपन का प्रदर्शन आजीवन करता रहता हैऔर हम मुर्ख बने उसका अनुसरण करते रहते हैं.वह दोषी धर्मगुरु अपनी सुरक्षा के लिए इस तरह के लोगों की भीड़ बनाये रखता है...जिन्हें पंथ या मजहब के नाम पर विभाजित करने में वह और उस तरह के लोग सफल हो जाते हैं.
एक धर्म यह भी है,जिसमे हम और हमारे तरह के कई लोग जिनकी आँख खुलते ही कमाने की चिंता और आँख बंद होने तक भी अगले दिन के कार्यक्रम बनाने में व्यतीत हो जाता है......उनको न भगवान् की सुध होती है,न जप,तप,अनुष्ठान,पूजा,पाठ,प्रवचन,मन्दिर में देव दर्शन करने का समय होता है....तो क्या वो इसलिए धार्मिक नही हैं,क्यूंकि वह किसी पंथ या मत में शामिल नही हो पा रहा या मन्दिर में एक लोटा पानी नही चढा पा रहा?........वह क्या है?...........................वह अगर अपने कार्य करते समय किसी का अहित न करते हुए अपना अर्जन कर रहा है तो शायद वह सबसे बड़ा धार्मिक है..येह्भी हमारे ग्रंथों के पन्नों में लिखा है,उसको कर्मयोगी कहा गया है...उसको भी वे सारे लाभ प्राप्त होते हैं,जो पाखंड से उन पाखंडियों को नही मिल पाते.कर्मयोगी को आत्मिक शान्ति मिलती है जबकि उन्हें हमेशा अशांति और अपयश का डर सताता रहता है.इसका कदापि ये अर्थ नही है कि पूजा-पाठ सब व्यर्थ है.....उन्हें समय के अनुसार सीमाबद्ध किया जा सक्र्ता है,पर उनको असीम बना कर समय नष्ट नही करना चाहिए.कार्य दोनों ही करते हैं लेकिन एक अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को नरकगामी बनता है,वहीँ कर्मयोगी अपनी सदबुधि से धर्मं-कर्म का समन्वय करके चलता है...अपनी मेहनत की कमाई को कुपात्रों को दान देने से बचता है,क्यूंकि कुपात्र को दान देना सबसे बड़ा पाप है.यह ज्ञान भी उन बंद पन्नों में लिखा है;जिन्हें ये तथाकथित धर्मात्माबंद रहने में ही अपना भला समझते हैं.....अब हमें विचार करना है कि हमें कैसा धार्मिक बनना है?
(सर्व अधिकार सुरक्षित )
एक धर्म यह भी है,जिसमे हम और हमारे तरह के कई लोग जिनकी आँख खुलते ही कमाने की चिंता और आँख बंद होने तक भी अगले दिन के कार्यक्रम बनाने में व्यतीत हो जाता है......उनको न भगवान् की सुध होती है,न जप,तप,अनुष्ठान,पूजा,पाठ,प्रवचन,मन्दिर में देव दर्शन करने का समय होता है....तो क्या वो इसलिए धार्मिक नही हैं,क्यूंकि वह किसी पंथ या मत में शामिल नही हो पा रहा या मन्दिर में एक लोटा पानी नही चढा पा रहा?........वह क्या है?...........................वह अगर अपने कार्य करते समय किसी का अहित न करते हुए अपना अर्जन कर रहा है तो शायद वह सबसे बड़ा धार्मिक है..येह्भी हमारे ग्रंथों के पन्नों में लिखा है,उसको कर्मयोगी कहा गया है...उसको भी वे सारे लाभ प्राप्त होते हैं,जो पाखंड से उन पाखंडियों को नही मिल पाते.कर्मयोगी को आत्मिक शान्ति मिलती है जबकि उन्हें हमेशा अशांति और अपयश का डर सताता रहता है.इसका कदापि ये अर्थ नही है कि पूजा-पाठ सब व्यर्थ है.....उन्हें समय के अनुसार सीमाबद्ध किया जा सक्र्ता है,पर उनको असीम बना कर समय नष्ट नही करना चाहिए.कार्य दोनों ही करते हैं लेकिन एक अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को नरकगामी बनता है,वहीँ कर्मयोगी अपनी सदबुधि से धर्मं-कर्म का समन्वय करके चलता है...अपनी मेहनत की कमाई को कुपात्रों को दान देने से बचता है,क्यूंकि कुपात्र को दान देना सबसे बड़ा पाप है.यह ज्ञान भी उन बंद पन्नों में लिखा है;जिन्हें ये तथाकथित धर्मात्माबंद रहने में ही अपना भला समझते हैं.....अब हमें विचार करना है कि हमें कैसा धार्मिक बनना है?
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